कांधला रेलवे लाईन घेरने, और जमातियों द्वारा थाना फूंकने की खबरें फैल रही हैं, अपने अपने तरीके से लोग उन खबरों को शेयर कर रहे हैं। बड़े अखबारों में शुमार किये जाने वाले अखबारों ने भी उन तस्वीरों को प्रकाशित किया है। जली हुई गाड़ियां, पुलिस स्टेशन दिखाया गया है। आरोप है कि यह सारी संपत्ति नाराज जमातियों ने स्वाहा की है। मगर क्या यही सच है ? क्या यह एसा झूठ नहीं है जिसे मीडिया गोयलेबस की थ्योरी पर चलकर सच साबित करने पर तुली है। 2000 लोगों पर मुकदमे दर्ज किये गये हैं जिन पर आरोप है कि इन्होंने उपद्रव किया था। मगर जहां सच वाली बात है वहां अखबार में प्रकाशित थाना फूंकने और आग जनी करने की खबरें भी झूठ साबित हो जाती है। सच्चाई यह है कि जब यह खबर फैली कि पुलिस की गोली लगने से एक व्यक्ति की मौत हो गई है तभी खुद को पाक साफ साबित करने के लिये पुलिस ने थाने के सामने खड़े वाहनों में आग लगा दी और थाने के अंदर रखे कागजात को जला कर यह साबित करने की कोशिश की प्रदर्शनकारियों ने थाने को आग के हवाले कर दिया है। जबकि यह सरासर झूठ है, थाने में आग लगाने वाले कोई प्रदर्शनकारी या जमाती नहीं थे बल्कि वे पुलिसकर्मी थे जिनकी गौली लगने से मौत हो जाने की अफवाह फैली थी। महज एक अखबार को छोड़कर किसी ने भी यह लिखने की कोशिश नहीं की कि थाने में, वाहनों में आग लगाने वाले जमाती नहीं बल्कि पुलिसकर्मी थी। सवाल पैदा होता है कि जो पुलिसकर्मी खुद के बचाव के लिये थाने को आग के हवाले कर सकते है क्या उनके लिये यह मुश्किल है कि वे अपने नंबर बढ़ाने, इनाम पाने के लिये किसी निर्दोष को कत्ल नहीं करते होंगे ? बहरहाल मीडिया इस पूरे मामले को जिस तरीके से पेश कर रही है वह हैरान कर देने वाला बिल्कुल भी नहीं है ? अभी महज डेढ़ साल पहले की बात है सरधना विधायक ठाकुर संगीत सोम ने धारा 144 लागू होने के बावजूद एक पंचात बुलाई थी जिसमें पुलिस और आरएएफ की 18 गाड़ियां ठाकुरों ने फूंक दीं थी। मगर जो अखबार यह शीर्षक लगा रहे हैं कि जमातियों का तांडव, थाना फूंका, वगैरा वगैरा, उन्होंने उस दौरान बिल्कुल भी यह नहीं कहा था कि सरधना में ठाकुरों का तांडव या ठाकुरों ने पुलिस की गाड़ियां फूंकी। हिंदी मीडिया की मुस्लिम समुदाय के प्रति यह अघोषित दुश्मनी पहले भी कई बार जाहिर हो चुकी है। आज जिस तरह अखबारों ने यह साबित करने की कोशिश की है जमातियों ने थाने में आग लगाई है, अगर इतनी ही कोशिश यह सवाल करने की होती कि ट्रेन में जमातियों के साथ मार पीट आखिर कौनसे अधिकार के तहत की गई थी तो हो सकता है कल रेलवे लाईन को न रोका जाता। मगर जमातियों की पिटाई, उनकी दाढ़ी उखाड़ने की सच्चाई को एक तरफ एक कोने में रखकर यह साबित करने में लगा है कि जमाती बहुत खतरनाक होते हैं, वे रेलवे लाईन को रोक लेते हैं, थाने में आग लगा देते हैं। फिर से दोहरा रहा हूं यह जानते हुए भी कि मेरी यह आवाज नक्कार खाने में तूती के समान है, कि थाने में आग लगाने वाले दाढ़ी टोपी, वाले जमाती नहीं थे बल्कि खाकी के रखवाले हैं। बेहतर यह हो अगर इस देश को सांप्रदायिकता की आग में झुलसने से बचाना है, तो सच सुना जाये, सच बोला जाये, सच लिखा जाये, सच कहा जाये, मगर निजी दुश्मनी के लिये किसी की छवी को बट्टा लगाने की कोशिश न की जाये। इन्हीं कोशिशों के चलते आज हिंदू घरों में पैदा होने वाले बच्चे जिन्होंने कभी मुसलमानों को देखा ही नहीं वे लफ्ज ए मुसलमान से डरने लगे हैं, और इस छवी को बनाने में मीडिया का भी एक अहम किरदार रहा है। धन्य हो चौथे स्तंभ तुम्हें अगर लोकतंत्र का खंभा न कहकर नफरत एफ्फिल टॉवर कहा जाये तो बेहतर होगा वसीम भाई की कलम से
हकीम दानिश
जमात पर हमला ट्रेन में
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