******किरदार का अक़्स*****
----- सफहा 1 और 2 से आगे ----
एक ऐसी खूबसूरत और सच्ची कहानी कि आपकी ईमान ताज़ा कर दे
फुर्सत मिले तो जरूर पढियेगा.....
जाने से पहले उसने अपने दोस्त से पूछा कि यह कौन सी किताब है?????
त्युन्सी दोस्त ने कहा...... ये हम मुसलमानों की किताब क़ुरआन है....!!!!
जाद ने पूछा कि मुसलमान कैसे बनते हैं?????
त्युन्सी दोस्त ने कहा ..... कलमा ए शहादत पढ़ते हैं और फिर शरीयत पर अमल करते हैं ........
जाद ने कहा.... तो फिर सुन लो मैं कलमा ए शहादत पढ़ रहा हूँ......
"अश्शहादुअन्ना लाइलाहा इल्लल्लाह"
"व अश्शाहदुअन्ना मुहम्मदन रसूल्लाल्लाह (स.अ.व)
जाद मुसलमान हो गया और अपने लिये
"जादल्लाह क़ुरआनी" नाम पसंद किया।
नाम का इख़्तियार उसकी क़ुरआन से बेहताशा मुहब्बत का सबूत था।जादल्लाह ने क़ुरआन की तालीम हासिल की, दींन को समझा और उसकी तब्लीग शुरू की। यूरोप में उनके हाथ पर 6 हजार से जायद लोगों ने इस्लाम कबूल किया!!!!!!!!!
एक दिन पुराने कागज़ात को देखते हुए जादल्लाह को अंकल इब्राहिम के दिये हुए क़ुरआन में दुनिया का एक नक़्शा नजर आया जिसमें बरअज़्म अफ्रीका के इर्द -गिर्द लकीर खींची हुई थी ।
और अंकल के दस्तखत किये हुए थे ।
साथ में अंकल के हाथ से ही ये आयते करीमा लिखी हुई थी.......
(हिंदी में आयत ठीक से न लिख पाने की वजह से सिर्फ तर्जुमा ही लिख रहा हूँ) "अपने रब के रास्ते की तरफ दावत दो हिकमत और नसीहत के साथ....!!!!!
जादल्लाह को ऐसा लगा जैसे ये अंकल की उनके लिये वसीयत हो। और उसी वक़्त जादल्लाह ने उस वसीयत पर अमल करने की ठानी। जादल्लाह ने यूरोप को खैर बाद कहा और कीनिया ,सूडान,युगांडा,और उसके आस-पास के मुमालिक को अपना मिशन बनाया, दावत -ए- हक़ के लिये हर मुश्किल और खतरनाक रास्ते पर चलने से नहीं हिचकिचाये और "अल्लाह रब्बुल इज्जत" ने उनके हाथों "साठ लाख "इंसानों को दीं ए इस्लाम की रौशनी से नवाज़ा........!!!!!!
जादल्लाह ने अफ्रीका के कठिन माहौल में अपनी जिंदगी के 30 साल गुजार दिये।
सन् 2003 में अफ़्रीका में पाई जाने वाली बीमारियों में घिरकर महज 54 साल की उम्र में अपने ख़ालिक़ हकीकी को जा मिले........!!!!!!!
जादल्लाह के मेहनत के मुताबिक़ उनकी वफ़ात के बाद भी लोगों के इस्लाम कबूलने की सिलसिला जारी है।
वफ़ात के ठीक दो साल बाद उनकी माँ सत्तर (70) साल की उम्र में इस्लाम कबूल किया........
जादल्लाह अक्सर याद किया करते थे कि अंकल इब्राहिम ने उनके सत्तरह (17) सालों में कभी भी उन्हें गैर मुस्लिम महसूस नहीं होने दिया और ना ही कभी कहा कि इस्लाम कबूल कर लो। मगर उनका रवैय्या ऐसा था कि जाद का इस्लाम कबूल किये बगैर कोई चारा न था.....
मेरे दोस्तों आखिर में यही कहूँगा कि जितना हो सके अपने अच्छे किरदार को उजागर करें । क्योंकि हमारी जुबान से निकली हुई बात को हो सकता है कोई ईनकार भी कर दे लेकिन जिस बात को हम अपीने किरदार से और दिल की गहराइयों से शुरू करेंगे तो उसे कोई नहीं झुठला सकता.... शुक्रिया
हकीम दानिश.
किरदार का अक्स भाग 3
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