Friday, October 17, 2014

हदीस भाग ३

हकीम दानिश
हदीसें हदीसें 
तीसरा भाग
101. أكرِم ضَيفَكَ وَإن كانَ حَقيراً وَقُم عَن مَجلِسِكَ لاَِبِيكَ وَمُعَلِّمِكَ وَإن كُنتَ أميراً
अपने मेहमान की इज़्ज़त करो चाहे वह नीच ही हो और अपने बाप व उस्ताद के आदर में अपनी जगह से खड़े हो जाओ चाहे तुम शासक ही क्यों न हो। 
102. اِغتَنِم مَنِ استَقرَضَكَ في حالِ غِناكَ لِيَجعَلَ قَضاءَهُ في يَومِ عُسرَتِكَ;
(अगर) कोई तुम्हारे मालदार होने की स्थिति में तुम से कर्ज़ माँगे तो उसे अच्छा समझो, वह तुम्हारी आवश्यक्ता के समय तुम्हें उसका बदला देगा। 
103. أكثِرِ النَّظرَ إلى مَن فُضِّلتَ عَلَيهِ فَإنَّ ذلِكَ مِن أبوابِ الشُّكرِ
तुम्हें जिन लोगों पर श्रेष्ठता दी गई है उनकी ओर अधिक देखो, (अर्थात उनका अधिक ध्यान रखो) क्योंकि यह, शुक्र करने का एक तरीका है।
104. أشعِر قَلبَكَ الرَّحمَةَ لِجَميعِ النّاسِ وَالإحسانِ إلَيهِمَ وَلا تُنِلهُم حَيفاً وَلا تَكُن عَلَيهِم سَيفاً;
समस्त लोगों के साथ मोहब्बत और भलाई करने को अपने दिल का नारा बना लो और न उन्हें नुक्सान पहुंचाओ और न ही उन पर तलवार खींचो।
105. اِستَفرغ جُهدَكَ لِمَعادِكَ تُصلِح مَثواكَ وَلا تَبع آخِرَتَكَ بِدُنياكَ
अपनी पूरी मेहनत व कोशिश को आख़ेरत के लिये खर्च करो ताकि तुम्हारा ठिकाना अच्छा बने और अपनी आख़ेरत को दुनिया के बदले न बेचो।
106. اِجعَل لِكُلِّ إنسان مِن خَدَمِكَ عَمَلاً تَأخُذهُ بِهِ فَإنَّ ذلِكَ أحرى أن لا يَتَواكَلُوا فِي خِدمَتِكَ; 
अपने तमाम मातहतों को काम पर लगाओ और उनसे, उनके कार्यों के बारे में पूछ ताछ करो, (ताकि वह अपनी ज़िम्मेदारियों का जवाब दें) यह काम (इस लिए) अच्छा है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी को एक दूसरे के कांधे पर न डाल सकें।
107. اُبذل لِصَديقِكَ كُلَّ المَوَدَّةِ وَلا تَبذُل لَهُ كُلَّ الطُّمَأنينَةِ وأَعطِهِ مِن نَفسِكَ كُلَّ المُواساةِ وَلا تَقُصَّ اِلَيهِ بِكُلِّ أسرارِكَ; 
अपनी पूरी मोहब्बत को अपने दोस्त पर निछावर कर दो, लेकिन उस पर आँख बन्द कर के भरोसा न करो, दिल से उसके साथ रहो लेकिन अपने सारे राज़ उसे न बताओ। 
108. اِصبِر عَلى مَرارَةِ الحَقِّ وَإيّاكَ أن تَنخَدِعَ لِحَلاوَةِ الباطِلِ; 
हक़ (सच्चाई) की कडवाहट पर सब्र करो और खबरदार बातिल (झूठ) की मिठास से धोखा न खाना।
109. أطِع مَن فَوقَكَ يُطِعكَ مَن دُونَكَ; 
अपने बड़ों का कहना मानों ताकि तुम्हारे छोटे तुम्हारा कहना मानें। 
110. اِكتَسِبُوا العِلمَ يَكسِبكُمُ الحَياةَ; 
ज्ञान प्राप्त करो ताकि वह तुम्हें ज़िन्दगी दें। 
111. اِلزَمُوا الجَماعَةَ وَاجتَنِبُوا الفُرقَةَ; 
सब के साथ मिल कर रहो और अलग रहने से बचो।
112. اِنتَهِزُوا فُصَ الخَيرِ فَإنَّها تَمُرُّ مَرَّ السَّحابِ;
सुअवसर से फ़ायदा उठाओ क्यों कि वह बादलों की तरह गुज़र जाती है। 
113. اِتَّقُوا مَعاصِيَ الخَلَواتِ فَإنَّ الشّاهِدَ هُوَ الحاكِمُ; 
तन्हाई के गुनाहों से बचो, क्योंकि उन्हें देखने वाला हाकिम है।
114. اُطلُبُوا العِلمَ تُعرَفُوا بِهِ وَاعمَلُوا بِه تَكُونُوا مِن أهلِهِ;
ज्ञान प्राप्त करो ताकि उसके द्वारा पहचाने जाओ और उस पर क्रियान्वित रहो ताकि उसके योग्य बने रहो।
115. اِضرِبُوا بَعضَ الرَّأيِ بِبَعض يَتَوَلَّد مِنهُ الصَّوابُ;
अपनी राय को एक दूसरे के सामने रखो ताकि उस से एक अच्छा नतीजा निकले।
116. أجمِلُوا فِي الخِطابِ تَسمَعُوا جَميلَ الجَوابِ; 
अपनी बात चीत को सुन्दर बनाओ ताकि अच्छा जवाब सुनो।
117. اِتَّهِمُوا عُقُولَكُم فَإنَّهُ مِنَ الثِّقَةِ بِها يَكُونُ الخَطاءُ; 
अपनी बुद्धी को ग़लती करने वाली मान कर चलो, क्योंकि उस पर अधिक भरोसा करना ग़लती हो सकती है। 
118. اِحذَر كُلَّ عَمَل يَرضاهُ عامِلُهُ لِنَفسِهِ وَيَكرَهُهُ لِعامَّةِ المُسلِمينَ; 
हर उस काम से बचो जिस का करने वाला उसे अपने लिये तो पसंद करता हो लेकिन आम मुसलमानों के लिये पसंद न करता हो।
119. اِحذَر كُلَّ قَول وَفِعل يُؤدِّي إلى فَسادِ الآخِرَةِ وَالدِّينِ;
हर उस बात व काम से बचो, जो आख़ेरत व दीन को बर्बादी की ओर ले जायें।
120. اِحذَر مُجالَسَةَ قَرينِ السُّوءِ فَإنَّهُ يُهلِكُ مُقارِنَهُ وَيُردي مُصاحِبَهُ; 
बुरे दोस्त के पास बैठने से बचो, क्योंकि वह अपने दोस्त को बर्बाद और अपने साथी को ज़लील करता है।
121. اِحذَرُوا ضِياعَ الأعمارِ فِيما لا يَبقى لَكُم فَفائِتُها لايَعُودُ; 
जो चीज़ें तुम्हारे पास बाक़ी रहने वाली नहीं हैं, उनमें अपनी उम्र बर्बाद करने से बचो, क्योंकि जो उम्र बीत जाती है, वह वापस नहीं आती। 
122. إيّاكَ وَالهَذَرَ فَمَن كَثُرَ كَلامُهُ كَثُرَت آثامُهُ;
अधिक बोलने से बचो क्योंकि अधिक बोलने वाले के गुनाह भी अधिक होते हैं।
123. إيّاكَ وَالنَّميمَةَ فَإنَّها تَزرَعُ الضَّغينَةَ وَتُبَعِّدُ عَنِ اللهِ وَالنّاسِ; 
चुग़ल खोरी से बचो, क्योंकि यह दुश्मनी का बीज बोती है और अल्लाह व इन्सानों से दूर करती है। 
124. إيّاكَ وَالمَنَّ بِالمَعرِّوفِ فَإنَّ الاِمتِنانَ يُكَدِّرُ الإحسانَ; 
भलाई करने के बाद उसका एहसान जताने से बचो, क्योंकि एहसान जताना नेकी को बर्बाद कर देता है। 
125. إيّاكَ وَالنِّفاقَ فَإنَّ ذَا الوَجهَينِ لا يَكُونُ وَجيهاً عِندَ اللهِ; 
निफ़ाक से बचो, क्योंकि अल्लाह (की नज़र में) मुनाफिक की कोई इज़्ज़त नहीं है।
126. إيّاكَ أن تَجعَلَ مَركَبَكَ لِسانَكَ في غِيبَةِ إخوانِكَ أو تَقُولَ ما يَصيرُ عَلَيكَ حُجَّةً وَفِي الإساءَةِ إِلَيكَ عِلَّةً; 
अपनी ज़बान को अपने भाई की चुग़ली की सवारी बनाने से बचओ और ऐसी बात कहने से भी दूर रहो जो तुम्हारे लिये दलील और तुम्हारे साथ बुराई करने का कारण व बहाना बने।
127. إيّاكُم وَالبِطنَةَ فَإنَّها مَقساةٌ لِلقَلبِ مَكسَلَةٌ عَنِ الصَّلاةِ وَمَفسَدَةٌ لِلجَسَدِ; 
पेट भर कर भोजन करने से बचो, क्योंकि इस से दिल सख़्त होता है, नमाज़ में सुस्ती पैदा होती है और यह शरीर के लिये भी हानिकारक है।
128. إيّاكُمِ وَالفُرقَةَ فَإنَّ الشّاذَّ عَن أهلِ الحَقِّ لِلشَّيطانِ كَما أنَّ الشّاذَّ مِنَ الغَنَمِ لِلذِّئبِ; 
अलग होने से बचो, क्योंकि हक़ से अलग होने वाला शैतान का (शिकार बन जाता है) जिस तरह रेवड़ से अलग होने वाली भेड़, भेड़िये का शिकार बन जाती है।
129. ألا مُستَيقِظٌ مِن غَفلَتِهِ قَبلَ نَفادِ مُدَّتِهِ; 
क्या कोई नहीं है, जो उम्र पूरी होने से पहले ग़फ़लत से जाग जाए।
130. ألا وَإنَّ مِنَ البَلاءِ الفاقَةَ وَأشَدُّ مِنَ الفاقَةِ مَرَضُ البَدَنِ وَأشَدُّ مِن مَرَضِ البَدَنِ مَرَضُ القَلبِ; 
जान लो कि भुखमरी एक विपत्ति है और शारीरिक बीमारी भुखमरी से भयंकर है और दिल की बीमारी (अर्थात कुफ़्र, निफ़ाक़ व शिर्क) शारीरिक बीमारी से भी भंयकर है।
131. ألا لايَستَحيِيَنَّ مَن لا يَعلَمُ أن يَتَعَلَّمَ فَإنَّ قِيمَةَ كُلِّ امرِئ مَا يَعلَمُ; 
समझ लो कि तुम जिस चीज़ के बारे में नहीं जानते हो उसे सीखने में शर्म न करो, क्योंकि हर इन्सान का महत्व उस चीज़ में है जिसे वह जानता है।
132. ألا لا يَستَقبِحَنَّ مَن سُئِلَ عَمَا لا يَعلَمُ أن يَقُولَ لا أعلَمُ;
जान लो कि जब किसी से कोई सवाल पूछा जाये और वह उसका जवाब न जानता हो तो यह कहने में कोई बुराई नही है कि मैं नहीं जानता हूँ।
133. أفضَلُ العِبادَةِ غَلَبَةُ العادَةِ; 
सब से अच्छी इबादत आदतों पर क़ाबू पाना है। 
134. أفضَلُ الإِيمانِ الأمانَةُ;
सब से अच्छा ईमान आमानतदारी है।
135. اَسوَءُ النّاسِ عَيشاً الحَسُودُ; 
इंसानों में सब से बुरा जीवन ईर्ष्यालु का होता है।
136. أَشَدُّ القُلُوبِ غِلاًّ قَلبُ الحَقُودِ; 
दिलों में सब से बुरा दिल, कीनः (ईर्ष्या) रखने वाले का होता है। 
137. أَفضَلُ العَمَلِ ما اُرِيدَ بِهِ وَجهُ اللهِ; 
सब से अच्छा काम वह है जिस के द्वारा अल्लाह की ख़ुशी को प्राप्त करने की इच्छा की जाये। 
138. أَفضَلُ المَعرُوفِ إغاثَةُ المَلهُوفِ;
सब से श्रेष्ठ भलाई, पीड़ित की फ़रियाद सुनना है।
139. أَكبَرُ الحُمقِ الإغراقُ فِي المَدحِ وَالذَّمِ; 
सब से बड़ी मूर्खता, (किसी की) बुराई या प्रशंसा में अधिक्ता से काम लेना है।
140. أَفضَلُ النّاسِ أنفَعُهُمِ لِلنّاسِ;
सब से अच्छा इन्सान वह है, जिस से इन्सानों को सबसे अधिक फ़ायदा पहुंचता है। 
141. أَقبَحُ الغَدرِ إذاغَةُ السِّرِّ; 
सब से बड़ी गद्दारी (किसी के) रहस्यों को खोलना है।
142. أَفضَلُ الوَرَعِ حُسنُ الظَّنِّ;
सब से अच्छी पारसाई, खुश गुमान रहना है। 
143. أَسرَعُ شَيء عُقُوبَةً اليَمينُ الفاجِرَةُ; 
जिस चीज़ की सज़ा बहुत जल्दी मिलती है, वह झूठी क़सम है।
144. أَكثَرُ النّاسِ أمَلأ أقَلُّهُم لِلمَوتِ ذِكراً; 
सब से अधिक इच्छायें उन लोगों की होती है, जो मौत को बहुत कम याद करते हैं।
145. أَبصَرُ النّاسِ مَن أبصَرَ عُيُوبَهُ وَأقلَعَ عَن ذُنُوبِهِ;
सब से अधिक दृष्टिवान इन्सान वह है जो अपनी बुराइयों को देखे और गुनाहों से रुक जाये।
146. أَقوَى النّاسِ مَن غَلَبَ هَواهُ;
सब से अधिक शक्तिशाली इन्सान वह है जो अपनी हवस पर काबू पा ले।
147. أَصلُ المُرُوءَةِ الحَياءُ وَثَمَرَتُهَا العِفَّةُ; 
मर्दांगी की जड़ शर्म है, और उसका फल पारसाई है।
148. أَفضَلُ النّاسِ مَن كَظَمَ غَيظَهُ وَحَلُمَ عَن قُدرَة; 
सब से अच्छा इन्सान वह है जो अपने गुस्से को पी जाए और ताक़त के होते हुए संयम से काम ले।
149. أَغبَطُ النّاسِ المُسارِعُ إلَى الخَيراتِ
सब से खुश हाल इन्सान वह है जो नेकियों की तरफ़ दौड़े।
150. أَعظَمُ الذُّنُوبِ عِندَ اللهِ ذَنبٌ اَصَرَّ عَلَيهِ عامِلُهُ; 
अल्लाह के नज़दीक सब से बड़ा गुनाह वह है, जिसे गुनहगार बार बार करे।
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